पाठ – 3
सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन
This post is about the detailed notes of class 12 Sociology Chapter 3 Saamaajik sansthaen: nirantarata evan parivartan (Social Institutions: Continuity and Change) in Hindi for CBSE Board. It has all the notes in simple language and point to point explanation for the students having Sociology as a subject and studying in class 12th from CBSE Board in Hindi Medium. All the students who are going to appear in Class 12 CBSE Board exams of this year can better their preparations by studying these notes.
यह पोस्ट सीबीएसई बोर्ड के लिए हिंदी में कक्षा 12 समाजशास्त्र अध्याय 3 सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन के विस्तृत नोट्स के बारे में है। इसमें सभी नोट्स सरल भाषा में हैं और सीबीएसई बोर्ड से हिंदी माध्यम से 12वीं कक्षा में एक विषय के रूप में समाजशास्त्र पढ़ने वाले छात्रों के लिए उपयोगी है। वे सभी छात्र जो इस वर्ष की कक्षा 12 सीबीएसई बोर्ड परीक्षा में शामिल होने जा रहे हैं, इन नोट्स को पढ़कर अपनी तैयारी बेहतर कर सकते हैं।
Board | CBSE Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Sociology |
Chapter no. | Chapter 3 |
Chapter Name | सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन (Social Institutions: Continuity and Change) |
Category | Class 12 Sociology Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
सामाजिक संस्था
- समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए समाज के कुछ शिक्षित एवं जागरूक लोगों द्वारा बनाया गया संगठन सामाजिक संस्था कहलाता है यह संगठन समाज के सभी लोगों की भागीदारी से काम करता है
- इस पाठ में मुख्य रूप से हम ऐसे ही संगठनों के बारे में पड़ेंगे उदाहरण के लिए वर्ण, जाति, परिवार, जनजाति आदि
- इन सभी का निर्माण मानव द्वारा समाज को ठीक प्रकार से चलाने के लिए किया गया था
निरंतरता और परिवर्तन
- यहां पर निरंतरता और परिवर्तन का संबंध समाज के इन संगठनों (परिवार, जाति, वर्ण, जनजाति आदि) में आए बदलावों और उनकी वर्तमान स्थिति से है
प्राचीन भारतीय समाज
- प्राचीन काल से ही भारतीय समाज को अलग-अलग भागों में बांटा गया है
- यह बंटवारा मुख्य रूप से दो आधारों पर किया गया जिसमें से पहला था जाति एवं दूसरा था वर्ण व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था
- प्राचीन धर्म सूत्र और धर्म शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणों ने समाज को 4 वर्णों में बांटा था
- ब्राह्मण
- क्षत्रिय
- वैश्य
- शूद्र
वर्णो की उत्पत्ति
- ब्राह्मणों के अनुसार सभी वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के शरीर के विभिन्न अंगों में से हुई है
- इसी के आधार पर उस वर्ण के कार्यों का निर्धारण किया गया
ब्राह्मणों के अनुसार
- ब्रह्मा जी के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई
- उनके कंधे एवं भुजाओं से क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई
- वैश्य की उत्पत्ति जांघो से बताई गई
- शूद्रों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के पैरों से हुई
अन्य वर्ग
- ब्राह्मणों ने कुछ लोगों को इस वर्ण व्यवस्था से बाहर माना
- उनके अनुसार दो प्रकार के कर्म होते थे
पवित्र कर्म
- वह सभी कार्य जो 4 वर्ग के लोगों द्वारा किए जाते थे उन्हें पवित्र कर्म माना जाता था
दूषित कर्म
- इसके अलावा अन्य कार्य जैसे कि शवों को उठाना अंतिम संस्कार करना गंदगी की सफाई करना आदि दूषित कर्म माने जाते थे
- ऐसे सभी लोग जो यह दूषित कर्म किया करते थे उन्हें अस्पृश्य घोषित कर दिया गय
विभिन्न वर्णों के कार्य
इसी बटवारे के अनुसार इन सभी के काम का भी विभाजन किया गया था
ब्राह्मण
- वेदों का अध्ययन करना, यज्ञ करना और करवाना, भिक्षा मांगना
क्षत्रिय
- शासन करना, युद्ध करना, न्याय करना, दान दक्षिणा देना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, यज्ञ करवाना, वेद पढ़ना आदि
वैश्य
- कृषि, पशुपालन, व्यापार, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना, दान देना आदि
शूद्र
- तीनों वर्णों की सेवा करना
जातीय व्यवस्था
- समय के साथ-साथ कई ऐसे लोग सामने आए जो ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई वर्ण व्यवस्था में समा नहीं पाए
- इस स्थिति को देखते हुए ब्राह्मणों ने जाति व्यवस्था को बनाया
- इन जातियों का निर्धारण व्यक्तियों द्वारा किए जा रहे कार्य के अनुसार होता था[
- समय के साथ-साथ इन जातियों की संख्या बढ़ती गई और इनका निर्धारण भी जन्म के अनुसार किया जाता था
- जैसे की
- शिकारी
- निषाद (जंगल में रहने वाले लोग)
- कुम्हार
- सुवर्णकार
जाति की विशेषताएं
- जाति जन्म से निर्धारित होती है
- कोई भी व्यक्ति अपनी जाति को छोड़ नहीं सकता परंतु एक व्यक्ति को उसकी जाति से बाहर निकाला जा सकता है
- जाति के अंतर्गत विवाह से संबंधित नियम भी शामिल होते है
- जैसे कि समान जाति में शादी करना
- जाति के आधार पर खाना खाने और बांटने के नियम भी होते
- उदाहरण के लिए
- किस प्रकार का खाना खाया जा सकता है
- किसके साथ बैठकर खाना खाया जा सकता है
- जातियां अधिक्रम में संयोजित होती हैं
- प्रत्येक जाति में ऊंची तथा नीची जाति होती है
- सभी जातियां एक विशेष व्यवसाय से जुड़ी होती है
- एक जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति उस जाति के व्यवसाय को ही अपना सकता है
जातियों की प्राचीन समाज में स्थिति
- जातियों के विषय में सभी बातें धर्म ग्रंथों में लिखी गई थी परंतु असल समाज में इनका कितना प्रयोग किया जाता था यह स्पष्ट नहीं है
- जातिगत व्यवस्था की वजह से कुछ लोगों को तो फायदा हुआ जबकि कई लोगों को इसका नुकसान भी उठाना पड़ा उदाहरण के लिए ऊंची जाति वाले लोगों को इस व्यवस्था का फायदा हुआ जबकि नीचे जाति वाले लोगों का शोषण किया गया
- जाति के कठोर नियम होने की वजह से ही किसी भी व्यक्ति द्वारा भविष्य में अपनी स्थिति बदलना बहुत मुश्किल होता था
- जाति के सभी नियम इस आधार पर बनाए गए थे ताकि वह सभी जातियां एक दूसरे से अलग अलग रहे और एक दूसरे में घुल मिल ना पाएं
- जातिगत व्यवस्था सीढ़ी नुमा थी यानि समाज में हर जाति का क्रम ऊपर से नीचे की ओर था
- धार्मिक रूप से जातियां शुद्ध और अशुद्ध पर आधारित थी कुछ जातियों को शुद्ध माना जाता था जबकि कुछ जातियों को अशुद्ध माना जाता था
- जिन जातियों को शुद्ध माना जाता था उनका स्थान समाज में उच्च होता था जबकि अशुद्ध माने जाने वाली जातियों का स्थान समाज में निचला होता था
औपनिवेशिक काल में जाति व्यवस्था (1800 से 1947)
- प्रशासन को सही से चलाने के लिए अंग्रेजों ने भारत की जाति व्यवस्था को समझने की कोशिश की
- 1860 में हुई जनगणना के द्वारा जाति संबंधित आंकड़े इकट्ठे किए गए
- 1901 में हुई जनगणना के दौरान जाति के अधि क्रम संबंधी आंकड़े इकट्ठे किए गए
- इस दौरान बहुत सारे लोगों ने स्वयं को उच्च जाति का साबित करने के लिए अर्जिया दी और प्रमाण दिए
- इस प्रकार लिखित में जाति संबंधित जानकारी रखने के कारण यह व्यवस्था और ज्यादा कठोर हो गई
- इन्हीं आंकड़ों के आधार पर ब्रिटिश सरकार द्वारा उच्च जातियों के लोगों के अधिकारों को मान्यता दी गई इसमें भू राजस्व संबंधी अधिकार भी शामिल थे
- इस प्रकार से सरकार द्वारा भी ऊंची और नीची जाति में स्पष्ट भेद कर दिया गया
- इन सब वजहों से औपनिवेशिक काल का जाति व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा
स्वतंत्रता के बाद जाति व्यवस्था (1947 के बाद )
- भारत के संविधान द्वारा सभी नागरिकों को समान माना गया
- स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल लगभग सभी नेताओं ने देश में छुआछूत को खत्म करने की मांग की
- देश में निचली जाति के लोगों को आगे बढ़ाने के प्रयास किए गए एवं उच्च जाति के लोगों को भी आश्वासन दिया गया कि आप के अवसरों में कोई कमी नहीं
- देश में विकास और निजीकरण के कारण कई नए ऐसे व्यवसाय आए जो जातिगत व्यवस्था से अलग थे इस प्रकार से जातीय असमानता कम हुई
- नगरीकरण और शहरी व्यवस्था ने जातीय नियमों का पालन करना मुश्किल कर दिया
- आजाद भारत के लोग जाति के बजाय योग्यता के आधार पर महत्व देने के विचार से ज्यादा प्रभावित हुए
- परंतु कुछ क्षेत्रों जैसे कि गांव में यह व्यवस्था पहले जैसी ही रही
- एक जाति से दूसरी जाति में विवाह करना सामान्य नहीं है एवं भोजन मिल बांट कर खाने के नियमों के मामले में भी जातीय नियम मजबूत है
- राजनीति में जाति व्यवस्था का प्रभाव बना रहा कई जाति आधारित पार्टियों का उदय हुआ और साथ ही साथ कई प्रत्याशी जातीय समर्थन के आधार पर जीते भी
जनजातीय समुदाय
- जनजातीय समुदाय उन समुदायों को कहा जाता है जो बहुत पुराने समय से एक क्षेत्र के निवासी हैं
- जनजातीय समुदाय वह समुदाय थे जो किसी धर्म ग्रंथ के अनुसार किसी धर्म का पालन नहीं करते थे
- उनका कोई सामान्य प्रकार का राज्य या राजनीतिक संगठन नहीं था
- उनके समुदाय कठोर रूप से वर्गों में नहीं बटे हुए थे
- उनमें कोई जातिगत व्यवस्था नहीं थी
- ना तो वह हिंदू थे ना ही किसान थे
जनजातीय समुदायों का वर्गीकरण
- जनजातीय समुदायों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जाता है
स्थाई विशेषक
- इसमें उन लोगों को शामिल किया जाता है जो मुख्य रूप से जनजातियों से जुड़े हुएहै
निवास स्थान
- इनका लगभग 85% भाग मध्य भारत में रहता है यह पश्चिम में गुजरात और राजस्थान से लेकर पूर्व में उड़ीसा और पश्चिम बंगाल तक फैले हुए है
- बाकी का 11% भाग पूर्वोत्तर राज्यों में और बाकी का बचा हुआ देश के अन्य हिस्सों में रहता है
भाषा
- जनजातीय समूह की भाषाओं को मुख्य रूप से चार भागों में बांटा जाता है
- भारतीय आर्य परिवार(1%)
- द्रविड़ परिवार (80%)
- ऑस्ट्रिक
- तिब्बती
- जनजातीय समूह की भाषाओं को मुख्य रूप से चार भागों में बांटा जाता है
जनसंख्या
- जनसंख्या के आधार पर सबसे बड़ी जनजाति की जनसंख्या लगभग 70 लाख है एवं सबसे छोटी जनजाति, अंडमान द्वीपवासियों की संख्या केवल100 के आसपास है
- 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की समस्त जनसंख्या का लगभग 8.2% यानी 8.4 करोड लोग जन जाति से संबंध रखते हैं
- कुछ सबसे बड़ी जनजातिया गोंड, भील, संथाल, बोडो और मुंडा है
अर्जित विशेषक
इसे मुख्य रूप से आजीविका एवं हिंदू समाज में उनके समावेश की सीमा के आधार पर निर्धारित किया जाता है
आजीविका के आधार पर
- आजीविका के आधार पर जनजातियों को मछुआ, खाद्य संग्राहक, आखेटक, झूम खेती करने वाले कृषक आदि श्रेणियों में बांटा जाता है
हिंदू समाज में उनके समावेश के आधार पर
- हिंदू समाज में उनके समावेश के आधार पर यह देखा जाता है कि हिंदू समाज में उनकी क्या स्थिति है क्योंकि जनजातियों के मध्य हिंदू समाज को लेकर अलग अलग विचारधारा है कुछ का हिंदुत्व की ओर सकारात्मक झुकाव है जबकि कुछ जनजातियां हिंदुत्व का विरोध करती हैं
मुख्यधारा के लोग और जनजातियां
- साहूकारों द्वारा शोषण
- गैर जनजातीय लोगों द्वारा उनकी जगह पर कब्जा कर लेना
- सरकारों की वन संरक्षण नीति के कारण वनों तक ना पहुंच पाना
- खनन कार्यों की वजह से विस्थापन
- अन्य लोगो का बढ़ता प्रभाव
जनजातीय समूहों का विकास
1940 के दौर में जनजातीय समूहों के विकास को लेकर दो अलग अलग विचारधाराएं सामने आई पृथक्करण एवं एकीकरण
पृथक्करण की विचारधारा
- पृथक्करण की विचारधारा का समर्थन करने वाले लोगों ने कहा कि जनजातीय लोगों को व्यापारियों, साहूकारों और अन्य धर्मों के लोगों से बचाने की जरूरत है क्योंकि यह उनका अस्तित्व समाप्त करके उन्हें भूमिहीन श्रमिक बनाना चाहते हैं
एकीकरण की विचारधारा
- एकीकरण की विचारधारा का समर्थन करने वाले लोगों ने कहा कि इन सभी जनजातीय लोगों को अन्य जातियों की तरह ही समझा जाना चाहिए एवं शिक्षा, व्यापार और विकास के समान अवसर दिए जाने चाहिए
राष्ट्रीय विकास बनाम जनजातीय विकास
- राष्ट् का विकास जनजातियों के लिए विनाश का सबसे बड़ा कारण रहा है
- नेहरू के दौर से ही देश में बड़े-बड़े बांधों को बनाने एवं विकास कार्यों की शुरुआत हो गई थी
- इस प्रक्रिया के अंतर्गत वनों का दोहन किया गया बड़े-बड़े बांधों का निर्माण किया गया जिस वजह से जनजातीय समूह जो कि वनो पर निर्भर थे उन्हें अपने क्षेत्र से विस्थापित होना पड़ा
- इस विस्थापन के कारण यह समुदाय बिखर गए और अपने क्षेत्र में अल्पसंख्यक बन गए
- देश में विकास की सबसे बड़ी कीमत इन जनजातीय समूहों को ही चुकानी पड़ी है
समकालीन जनजातीय पहचान (वर्तमान दौर )
- छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों का निर्माण
- पूरे भारत में जनजातियों को कई विशेष अधिकार प्रदान किए गए हैं
- सांस्कृतिक महत्व में वृद्धि
- शिक्षित वर्ग का विकास
- वन संसाधनों पर नियंत्रण
परिवार
परिवार
- परिवार समाज की महत्वपूर्ण संस्थाओं में से एक है
- संस्कृत ग्रंथों में परिवार को कुल कहा जाता है
परिवार की विशेषताएं
- परिवार के सभी सदस्यों में संसाधनों का बंटवारा
- मिल जुल कर रहना
- आपसी सहयोग
- परिवार में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग
परिवार के प्रकार
मूल परिवार
- मूल परिवार में केवल माता पिता और उनके बच्चे ही शामिल होते हैं
विस्तृत परिवार
- विस्तृत परिवार विस्तृत परिवार में दो या दो से अधिक पीढ़ियों के लोग एक साथ रहते हैं इसे संयुक्त परिवार भी कहा जाता है
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