पाठ – 7
भरत – राम का प्रेम
This post is about the detailed notes of class 12 Hindi Chapter 7 bharat – raam ka prem in Hindi for CBSE Board. It has all the notes in simple language and point to point explanation for the students having Hindi as a subject and studying in class 12th from CBSE Board in Hindi Medium. All the students who are going to appear in Class 12 CBSE Board exams of this year can better their preparations by studying these notes.
यह पोस्ट सीबीएसई बोर्ड के लिए हिंदी में कक्षा 12 हिंदी अध्याय 7 भरत – राम का प्रेम के विस्तृत नोट्स के बारे में है। इसमें सभी नोट्स सरल भाषा में हैं और सीबीएसई बोर्ड से हिंदी माध्यम से 12वीं कक्षा में एक विषय के रूप में हिंदी पढ़ने वाले छात्रों के लिए उपयोगी है। वे सभी छात्र जो इस वर्ष की कक्षा 12 सीबीएसई बोर्ड परीक्षा में शामिल होने जा रहे हैं, इन नोट्स को पढ़कर अपनी तैयारी बेहतर कर सकते हैं।
तुलसीदास का जीवन परिचय
- कवि तुलसीदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के जिले बांदा के राजापुर नामक गांव में सन 1532 में हुआ
- इनका बचपन कष्टों से भरा रहा बचपन में ही माता-पिता से बिछड़ जाने के कारण इन्हें भिक्षा मांग कर अपना जीवनयापन करना पड़ा
- ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास जी के गुरु नरहरी दास ने उन्हें राम भक्ति का मार्ग दिखाया
- 1574 में उन्होंने अयोध्या में रामचरित्रमानस की रचना प्रारंभ की जिसका कुछ अंश उन्होंने काशी में लिखा अपने जीवन के अंतिम समय में वह काशी में ही रह रहे और 1623 में उनका निधन हो गया
रचनाएं–
- रामचरित्रमानस तुलसीदास जी की मुख्य रचनाओं में से एक है इसमें कुल 7 कांड है और राम जी के संपूर्ण जीवन का वर्णन किया गया है
- इसके अलावा कवितावली, गीतावली और विनय पत्रिका इनकी मुख्य रचनाएं हैं
भरत-राम का प्रेम कविता का सारांश
इन पंक्तियों में उस कथा का वर्णन है जब भगवान श्रीराम को अपने पिताजी की आज्ञा अनुसार वनवास जाना पड़ा। भगवान श्री राम के वनवास जाने के बाद जब भरत वापस अयोध्या आए और उन्हें इस बात का पता चला तो वह बहुत ज्यादा दुखी हो गए। उनकी उस समय की मनोदशा और दुख को ही इन पंक्तियों में दर्शाया गया है
पुलकि सरीर सभां भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।।
मैं जानउं निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूं देखी।।
सिसुपन तें परिहरेउं न संगू। कबहूं न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही। हारेंहूं खेल जितावहिं मोंही।।
महूं सनेह सकोच बस सनमुख कहीं न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।
- भगवान राम के वन जाने के बाद जब भरत को इस बात का पता चलता है तो वह राम जी को वन से वापस बुलाने के लिए अपने कुछ साथियों और गुरु वशिष्ठ मुनि के साथ वनवास गए
- राम जी की कुटिया पर पहुंचकर वहां पर एक सभा बैठाई जाती है जिसमें वशिष्ठ मुनि सभी के आने का कारण बताते हैं और भरत से कहते हैं कि अब आप अपनी बात कहो
- भावनाओं से भरे भरत की आंखों से आंसू आ जाते हैं और वह कहते हैं कि ‘हे मुनिवर मैं क्या कहूं मुझे जो भी कहना था वह सब आपने कह दिया है’
- मैं बस यह कहना चाहता हूं कि मैं अपने बड़े भाई राम जी के स्वभाव को जानता हूं उनका दिल स्नेह से भरा हुआ है वह तो एक व्यक्ति की गलती होने पर भी उसे नहीं डांटते सदैव प्रेम पूर्वक समझाते हैं। उनके मन में इतना स्नेह है कि उनकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती
- आगे भरत कहते हैं कि मेरा पूरा बचपन श्री राम जी के साथ बीता है और उस पूरे दौर में उन्होंने कभी भी मुझ पर गुस्सा नहीं किया बचपन में चाहे कैसी भी समस्या आई हो, ना ही मैं उनका साथ छोड़ता था और ना ही कभी उन्होंने मेरा साथ छोड़ा
- अगर मैं खेल में कभी कभी हार भी जाया करता था तो प्रभु श्री राम मुझे किसी भी तरह से उस खेल में जीता दिया करते थे ताकि मेरा दिल ना टूटे
- इसी वजह से मैं अपने बड़े भाई श्री राम को वापस अयोध्या ले जाना चाहता हूं क्योंकि इतने लंबे दौर तक मैं उनके और उनके स्नेह के बिना कैसे रहूंगा। या तो श्रीराम मुझे अपने साथ वनवास ले चलें या फिर मेरे साथ वापस अयोध्या चले
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।।
यही कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदिर मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदेव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुं दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउं जायं जननि कहि काकू।।
हृदयं हेरि हारेउं सब ओरा। एकहि भांति भलेंहि भल मोरा।।
गुर गोसाइं साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।
साधु समां गुर प्रभु निकट कहउं सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।
- उपरोक्त पंक्तियों में भरत अपनी मां की निंदा करते हुए कहते हैं कि मेरी माता जी ने जो काम किया है वह पूर्ण रुप से अधर्म है आगे भरत खुद को दोष देते हुए कहते हैं कि मैं यह भी नहीं कह सकता कि मैं साधु या पवित्र हूं क्योंकि अपनी समझ में साधु या पवित्र बनकर कोई लाभ नहीं है क्योंकि यह तो जग निर्धारित करता है कि कौन कैसा है।
- भरत के अनुसार उनकी माता द्वारा श्री राम जी को वनवास भेजे जाना किसी अधर्म से कम नहीं था इसी वजह से वह उन्हें दुराचारी कहते हैं और स्वयं को भी दोष देते हुए यह कहते हैं कि जिस प्रकार एक कोदेव की बाली अच्छा अनाज नहीं दे सकती और एक काला घोघा श्रेष्ठ मोती नहीं दे सकता उसी प्रकार एक दुराचारी माता भी पवित्र संतान को जन्म नहीं दे सकती
- आगे यह स्वयं को दोषी बताते हुए कहते हैं कि मैं अपने सपने में भी किसी को दोष नहीं देना चाहता अपनी पिछली बातों की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं कि मैंने अपनी माता जी के ह्रदय को ठेस पहुंचाई है और उन्हें भला-बुरा कहा है।
- इन सब स्थितियों में मैं ही दोषी हूं वे कहते हैं कि शायद यह मेरे भाग्य का लिखा हुआ है और मेरे बुरे कर्मों का फल है कि आज मुझे यह सब देखना पड़ रहा है
- आगे भरत कहते हैं कि मुझे इन सब समस्याओं और बुरे पापों से सिर्फ श्रीराम ही बचा सकते हैं और मेरे सभी गुरुजन और श्री राम स्वयं यह जानते हैं कि मेरा प्रेम सच है या झूठ
भूपति मरन पेम पनु खारी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सनि समुझि सहिउं सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिन पानहिन्ह पयदेहि पाएं। संकरू साखि रहेउं ऐहि घाएं।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आंखिन्ह देखेउं आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग सांपनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तापस तीछी।।
तेइ रघुनंदन लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दैउ सहावइ काहि।।
- उपरोक्त पंक्तियों में भरत कहते हैं कि पूरी दुनिया ने यह देखा है कि कैसे मेरी माता के गलत कर्मों के कारण श्री राम जी को वनवास मिला और राम जी के वनवास चले जाने के कारण मेरे पिता दशरथ जी का निधन हुआ
- इस वजह से मेरी तीनों माताएं अत्यंत दुखी है और सभी अवधवासी असहनीय दुख झेल रहे हैं
- स्वयं को दोषी बताते हुए भरत कहते हैं कि यह सब मेरी वजह से हुआ है मेरी माता ने मुझे राजा बनाने के लिए ही यह सब किया
- आगे भरत कहते हैं कि जिन्हें देखकर सांप और बिच्छू भी अपना विष त्याग देते हैं उन श्री राम को अब दुखों से जूझना पड़ेगा और वन में साधुओं की भांति जीवन जीना पड़ेगा यह सब मेरी वजह से हुआ है
- लालच में आकर मेरी माता केकई ने श्री राम को वनवास भेजा और अब उनके इस बुरे कर्म का फल उन्हें मिल रहा है उन्होंने जिस बेटे की खुशी के लिए ऐसा किया था आज वह अत्यंत दुखी है और साथ ही साथ उन्हें अपने पति राजा दशरथ को भी खोना पड़ा
विशेष
- रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया गया है
- अवधी भाषा
- भाषा सरल और सहज है
- पंक्तियों में लयात्मकता है
- छंदयुक्त कविता
- भरत और राम के बीच के अनंत प्रेम को दर्शाया गया है
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